आधी रात में रबीन्द्रनाथ टैगोर
‘‘डॉक्टर! डॉक्टर!!’’
‘‘परेशान कर डाला! इतनी रात गए–’’
आँखें खोलकर देखा, अपने दक्षिणाचरण बाबू थे। हड़बड़ाकर उठकर टूटी पीठ की चौकी घसीटकर उन्हें बैठने को दी और उद्विग्न भाव से मुँह की ओर देखा। घड़ी देखी, रात के ढाई बजे थे।
दक्षिणाचरण बाबू ने विवर्ण मुख विस्फारित नेत्रों से कहा, ‘‘आज रात को फिर वही उपद्रव मच गया है–तुम्हारी औषधि कुछ काम नहीं आई।’’
मैंने कुछ संकोच के साथ कहा, ‘‘मालूम होता है, आपने शराब की मात्रा फिर बढ़ा दी है।’’
दक्षिणाचरण बाबू ने अत्यंत खीझकर कहा, ‘‘यह तुम्हारा भारी भ्रम है। शराब की बात नहीं; आद्योपांत विवरण सुने बिना तुम असली कारण का अनुमान नहीं कर पाओगे।’’
आले में मिट्टी के तेल की छोटी-सी ढिबरी मंद-मंद जल रही थी, मैंने उसे उकसा दिया; प्रकाश थोड़ा जगमगा उठा और बहुत-सा धुआँ निकलने लगा। धोती का छोर देह के ऊपर खींचकर अखबार बिछे चीड़ के खोखे पर बैठ गया। दक्षिणाचरण बाबू कहने लगे–‘‘मेरी पत्नी जैसी गृहिणी मिलना बड़ा कठिन है। किंतु तब मेरी अवस्था ज्यादा नहीं थी, सहज ही रसाधिक्य हो गया था, तिस पर काव्य-शास्त्र का अच्छी तरह अध्ययन किया था, इससे निरे गृहिणीपन से मन नहीं भर पाता था।
कालिदास का यह श्लोक प्रायः मन में उभर आता–
गृहिणी सचिवः सखी मिथः
प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ।
किंतु मेरी पत्नी पर ललित कलाविधि का कोई उपदेश नहीं चल पाता था और यदि सखीभाव से प्रथम-संभाषण करता तो वे हँसकर उड़ा देतीं। गंगा के प्रवाह से जिस प्रकार इंद्र का ऐरावत परास्त हो गया था वैसे ही उनकी हँसी के सामने बड़े-बड़े काव्यों के टुकड़े और प्यार के अच्छे-अच्छे संभाषण क्षण-भर में ही खिसककर बह जाते। हँसने की उनमें अपूर्व क्षमता थी।
उसके बाद, आज लगभग चार बरस हुए मुझे भयंकर रोग ने धर दबाया। होंठों पर दाने निकल आए। ज्वर-विकार हुआ, मरने की-सी हालत हो गई। बचने की कोई आशा नहीं थी। एक दिन ऐसा हुआ कि डॉक्टर भी जवाब दे गया। तभी मेरे एक आत्मीय ने कहीं से एक ब्रह्मचारी को ला उपस्थित किया; उसने गाय के घी के साथ एक जड़ी पीसकर मुझे खिला दी। चाहे औषधि के गुण से हो या भाग्य के फेर से, उस बार मैं बच गया।
बीमारी के समय मेरी स्त्री ने दिन-रात एक क्षण भी विश्राम नहीं किया। उन कई एक दिनों में एक अबला स्त्री ने मनुष्य की सामान्य शक्ति के सहारे प्राणपण से व्याकुलता के साथ द्वार पर आए हुए यमदूतों से अनवरत युद्ध किया। अपने संपूर्ण प्रेम, समस्त हृदय, सारी सेवा से उसने मेरे इस अयोग्य प्राण को स्वयं मानो दुधमुँहें शिशु समान दोनों हाथों से छिपाकर ढक लिया था। आहार नहीं, नींद नहीं, संसार में और किसी का कोई ध्यान न रहा।
यम तो पराजित बाघ के समान मुझे अपने चंगुल से छोड़कर चले गए, किंतु जाते-जाते मेरी स्त्री पर एक प्रबल पंजा मार गए।
मेरी स्त्री उस समय गर्भवती थीं, कुछ समय बाद उन्होंने एक मृत संतान को जन्म दिया। उसके साथ से ही उनके नाना प्रकार के जटिल रोगों का सूत्रपात हुआ। तब मैंने उनकी सेवा आरंभ कर दी। उससे वे बहुत व्याकुल हो उठीं। कहने लगीं, ‘‘अरे! क्या करते हो? लोग क्या कहेंगे! इस प्रकार दिन-रात तुम मेरे कमरे में मत आया-जाया करो।’’
स्वयं पंखे की हवा के बहाने यदि रात को ज्वर के समय मैं पंखा झलने चला जाता तो भारी छीना-झपटी मच जाती। किसी दिन उनकी शुश्रूषा के कारण यदि मेरे नियमित भोजन के समय में दस मिनट की देर हो जाती, वह भी नाना प्रकार का अनुनय, अनुयोग का कारण बन जाती। थोड़ी-सी सेवा करने पर लाभ के बदले हानि होने लगती। वे कहतीं, ‘‘पुरुषों का इतना अति करना अच्छा नहीं है।’’
हमारे बरानगर के उस घर को, मेरा ख्याल है तुमने देखा है। घर के सामने ही बगीचा है और बगीचे के सामने गंगा बहती है। हमारे सोने के कमरे के नीचे ही दक्षिण की ओर मेहँदी की बाड़ लगाकर कुछ जमीन घेरकर मेरी पत्नी ने अपने मनपसंद बगीचे का एक टुकड़ा तैयार किया था। संपूर्ण बगीचे में वही भाग अत्यंत सीधा-सादा और एकदम देशी था। अर्थात् उसमें गंध की अपेक्षा वर्ण की बहार, फूल की तुलना में पत्तों का वैचित्र्य नहीं था, और गमलों में लगाए छोटे पौधों के समीप कमची के सहारे कागज की बनी लैटिन में लिखे नाम की जय-ध्वजा नहीं उड़ती थी। बेला, जूही, गुलाब, गंधराज, कनेर और रजनीगंधा का ही प्रादुर्भाव कुछ अधिक था। एक विशाल मौलश्री वृक्ष के नीचे सफेद संगमरमर पत्थर का चबूतरा बना था। स्वस्थ रहने पर वे स्वयं खड़ी होकर दोनों समय उसको धोकर साफ करवाती थीं। ग्रीष्मकाल में काम से छुट्टी पाने पर संध्या समय वही उनके बैठने का स्थान था। वहाँ से गंगा दिखती थीं, किंतु गंगा से कोठी की छोटी नौका में बैठे बाबू लोग उनको नहीं देख पाते थे।
बहुत दिन तक चारपाई पर पड़े-पड़े एक दिन चैत्र में शुक्लपक्ष की संध्या को उन्होंने कहा, ‘‘घर में बंद रहने से मेरा प्राण न जाने कैसा हो रहा है आज एक बार अपने उस बगीचे में जाकर बैठूँगी।’’
मैंने उनको बहुत सँभालकर पकड़े हुए धीरे-धीरे ले जाकर उसी मौलश्री वृक्ष के नीचे बनी पत्थर की वेदी पर लिटा दिया। यों तो मैं अपनी जाँघ पर ही उनका सिर रख सकता था, किंतु मैं जानता था कि वे उसे विचित्र-सा आचरण समझेंगी, इसलिए एक तकिया लाकर उनके सिर के नीचे रख दिया।
मौलश्री के दो-एक खिले हुए फूल झर रहे थे। और शाखाओं के बीच से छायांकित ज्योत्स्ना उनके शीर्ण मुख के ऊपर आ पड़ी। चारों ओर शांति और निस्तब्धता थी; उस सघन गंधपूर्ण छायांधकार में एक ओर चुपचाप बैठकर उनके मुख की ओर देखकर मेरी आँखों में पानी भर आया।
मैंने धीरे-धीरे बहुत समीप पहुँचकर अपने हाथों से उनका एक उत्तप्त जीर्ण हाथ ले लिया। इस पर उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की। कुछ देर इसी प्रकार चुपचाप बैठे-बैठे मेरा हृदय न जाने कैसा उद्वेलित हो उठा! मैं बोल उठा, ‘‘तुम्हारे प्रेम को मैं कभी नहीं भूलूँगा।’’
तभी समझा, इस बात के कहने की कोई आवश्यकता नहीं थी। मेरी पत्नी हँस पड़ी। उस हँसी में लज्जा थी, सुख था और थोड़ा-सा अविश्वास था; और उसमें काफी मात्रा में परिहास की तीव्रता भी थी। प्रतिवादस्वरूप कोई बात न कहकर उन्होंने केवल अपनी उसी हँसी से ही व्यक्त किया, ‘‘किसी दिन भूलोगे नहीं, यह कभी संभव नहीं और मैं इसकी प्रत्याशा भी नहीं करती।’’
इस सुमिष्ट सुतीक्ष्ण हँसी के भय से ही मैंने कभी अपनी पत्नी के साथ अच्छी तरह प्रेमालाप करने का साहस नहीं किया। उनके सामने न रहने पर जो अनेक बातें मन में आतीं, उनके सामने जाते ही वे अत्यंत व्यर्थ लगने लगतीं। छत् अक्षरों में जो बातें पढ़ने पर नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगती है उनको मुँह से कहते हमें क्यों हँसी आती है, यह मैं आज तक नहीं समझ सका।
बातचीत में तो वाद-प्रतिवाद चल जाता है, किंतु हँसी के ऊपर तर्क नहीं चलता, इसलिए चुप होकर रह जाना पड़ा। ज्योत्स्ना उज्ज्वलतर हो उठी। एक कोयल बार-बार कुहू-कुहू करती हुई चंचल हो गई। मैं बैठा-बैठा सोचने लगा, ऐसी ज्योत्स्ना-रात्रि में भी क्या पिकवधू बधिर हो गई है?
बहुत चिकित्सा करने पर भी मेरी पत्नी का रोग शांत होने के कोई लक्षण नहीं दिखे। डॉक्टर ने कहा, ‘‘एक बार जलवायु परिवर्तन करके देखना अच्छा होगा।’’
मैं पत्नी को लेकर इलाहाबाद चला गया।
इतना कहकर दक्षिणा बाबू सहसा चौंककर चूप हो गए। संदेहपूर्ण भाव से मेरे मुख की ओर देखा, उसके बाद दोनों हाथों से सिर थामकर सोचने लगे। मैं भी चुप बैठा रहा। ताक में केरोसीन की ढिबरी टिमटिमाकर जलने लगी और निस्तब्ध कमरे में मच्छरों की भिनभिनाहट स्पष्ट रूप से सुनाई दे रही थी। हठात् मौन तोड़कर दक्षिणा बाबू ने कहना शुरू किया–‘‘वहाँ हारान डॉक्टर पत्नी की चिकित्सा करने लगे।’’